जब कपडे पहनो मनमर्ज़ी,
तुम लुटाती हो घर की इज़्ज़त।
जब आज़ादी से बाहर जाओ,
लूट जाती है परवरिश की इज़्ज़त।
जब मर्द का खुद पे काबू न रहे,
लूट जाती है तुम्हारी अपनी इज़्ज़त।
जब ससुराल वाले खुश न हो,
लूट जाती है माता पिता की इज़्ज़त।
जब समाज ने लिखा ये नियम की किताब,
तोह औरत को बना दिया इज़्ज़त की भंडार।
अगर बिना औरत के समाज रह जाती है बेइज़्ज़त,
तोह क्यों नहीं मिलती औरत को उसकी सही इज़्ज़त?
-Somya Mishra
तुम लुटाती हो घर की इज़्ज़त।
जब आज़ादी से बाहर जाओ,
लूट जाती है परवरिश की इज़्ज़त।
जब मर्द का खुद पे काबू न रहे,
लूट जाती है तुम्हारी अपनी इज़्ज़त।
जब ससुराल वाले खुश न हो,
लूट जाती है माता पिता की इज़्ज़त।
जब समाज ने लिखा ये नियम की किताब,
तोह औरत को बना दिया इज़्ज़त की भंडार।
अगर बिना औरत के समाज रह जाती है बेइज़्ज़त,
तोह क्यों नहीं मिलती औरत को उसकी सही इज़्ज़त?
-Somya Mishra